कविता

गैस गुबारा – बी. मदन मोहन

बाल कविता

मैं हूं गैस गुबारा भैया ऊंची मेरी उड़ान
नदियां-नाले-पर्वत घूमूं फिर भी नहीं थकान
बस्ती-जंगल बाग-बगीचे या हो खेत-खलिहान
रुकता नहीं कहीं भी पलभर देखूं सकल जहान

उड़ते-उड़ते गया हिमाचल देखा एक स्कूल
नीचे था एक झरना बहता, महक रहे थे फूल
ऊंची-नीची घाटी थी और मौसम था प्रतिकूल
फिर भी पुस्तक लिए हाथ में बच्चे थे मशगूल
जीवन में आगे बढऩे की यही एक पहचान
मैं हूं गैस गुब्बारा भैया ऊंची मेरी उड़ान

आगे बढ़ते पहुंच गया मैं छोटे-से एक गांव
चारों तरफ फसल लहराती कहीं धूप कहीं छांव
कड़ी धूप में हल-बैलों संग मेहनत करें किसान
तभी पहुंचता भारत के घर-घर में गेहूं-धान
अन्न-धन से भरे महकते भारत के खलिहान
मैं हूं गैस गुब्बारा भैया ऊंची मेरी उड़ान

गिरजा देखा मस्जिद देखी मंदिर और गुरुद्वारा
गंगा के घाटों पर देखा मैंने अजब नजारा
सूरज की किरणों  से पहले पक्षी करते शोर
कहीं कूकती कोयल देखी कहीं नाचता मोर
शंख और मृदंगम बाजे कहीं से उठे अजान
मैं हूं गैस गुब्बारा भैया ऊंची मेरी उड़ान

धवल चोटियां हिमालय की पहरेदार हमारा
ताजमहल की सुंदरता है अद्भुत एक नजारा
हमने दुनिया को बांटा है ज्ञान और विज्ञान
दया धर्म करुणा और ममता है अपनी पहचान
सच कहता हूं भैया सबसे सुंदर हिंदुस्तान
मैं हूं गैस गुब्बारा भैया ऊंची मेरी उड़ान

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016), पेज – 69

 

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