देस हरियाणा

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस

◊ स्मृति राज

हरियाणा सृजन उत्सव में  24 फरवरी 2018 को ‘थिएटर ऑफ रेलेवंस  के जनक मंजुल भारद्वाज से रंगकर्मी दुष्यंत के बीच परिचर्चा हुई और मौजूद श्रोताओं ने इसमें  शिरकत की। प्रस्तुत है इस संवाद की रिपोर्ट। सं.

 

दुष्यंत : मंजुल भारद्वाज का काम रंगकर्म से जुड़ा हुआ है। उसका नाम रखा गया थिएटर ऑफ़ रेलेवंस। प्रासंगिकता का रंगकर्म, रंगमंच। यह प्रासंगिकता है क्या? यह सिद्धांत है क्या?

मंजुल भारद्वाज : (हंसते हुए) थिएटर ऑफ़ रेलेवंस इसकी मैं व्याख्या करूं इसके पहले मैं थोड़ी सी, 120 सेकंड में अपना थोड़ा सा अनुभव रखूं। फिल्में जबरदस्त प्रभाव डालती हैं। हर कोई जो रंगकर्म में आना चाहता है, वह फिल्में देख करके… कई बात सुनकर… उसे लगता है कि मुझे एक्टर बनना है। मेरे सामने भी यह हुआ कि एक्टर बनना है और सीधे उस महानायक की छुट्टी कर देनी है। उसके लिए सबसे बढ़िया कर लेते हैं हम, कि वह हैमलेट और शेक्सपियर के नाटक पसंद करते हैं, तो हमने भी हैमलेट प्रोड्यूस किया। हैमलेट किया उस नुमाइशी रंगगृह, पृथ्वी थिएटर में हैंमलेट खेला और जब खेला तो रहना या नहीं रहना इस कंफ्यूजन को हमेशा के लिए  दूर कर दिया। बहुत फेमस लाइन हैं उनकी “टू बी ओऱ नॉट टू बी इज़ द कुएशचन”। और वह हुआ यह कि वो प्रोड्यूस कर लिया लेकिन चौथे शो के बाद क्लाडियस नाम का एक कैरेक्टर, उसकी आंख की पलक बच गए और वह शो चौथे शो के बाद बंद हो गया।

यह जानना इसीलिए जरूरी है क्योंकि सिद्धांत किताब से आता है, कि सिद्धांत जीवन से आता है, सिद्धांत किताब में लिखा जाता है, या सिद्धांत जीवन चलाता है। उस वक्त मेरी उम्र रही है 20 से 21 साल और मैं किराए के एक मकान में एंटॉप हिल नाम का एक सेक्टर 8 है वहां बंद हो गया। सामने वह महल का सेट… बरसात में… चार महीने की बरसात होती है मुंबई में। वह गल रहा था और अंदर कहीं मैं गल रहा था।

और उसके बाहर जहां हम चाय पीते हैं एक छोटी सी दुकान होती है। वह आदमी मुझे रोज जब मैं बाहर निकलता था तब वह बोलता था, आप के नाटक-वाटक का क्या हुआ? आप के नाटक-वाटक का क्या हुआ? और उसने लगातार वह बात सौ दिन तक बोली। पहले गुस्सा आया, झुंझलाहट हुई, कि उसको क्या  कुरेदने में मजा आ रहा है, लेकिन जब मैंने उसकी बात सुनी, वह यह कह रहा है कि आपका नाटक-वाटक कब होगा? सो मैंने कहा कि यह आदमी यह क्यों नहीं कह रहा है कि मेरा नाटक कब होगा? और वहां से थिएटर ऑफ़ रेलेवंस की शुरुआत हुई। वह मजदूर, कारीगर, वह सड़क का व्यक्ति, वह ठेला लगाने वाला, इस नाटक की दृष्टि देने के लिए जिम्मेदार है। और तब से थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाम का कांसेप्ट इस दुनिया में आया। इसमें एक ही बात की, थिएटर ऑफ़ रेलेवंस में दर्शक सबसे पहला रंगकर्मी है। हम अक्सर जानते हैं कि यह ऐक्टर बहुत बड़ा है लेकिन उस ऐक्टर को लाइन देने वाले को हम भूल जाते हैं। सो यह वहां से शुरुआत हुई की एक दर्शक सबसे पहला और सशक्त रंगकर्मी है। और दूसरा इस सिद्धांत का नियम है, की नाचने गाने वाले शरीर कलाकार नहीं होते। वह व्यक्ति कलाकार है जिसके पास दृष्टि है कि वह नाच क्यों रहा है और गा क्यों रहा है, और उसकी पक्षधरता क्या है?

दुष्यंत: आपने बात कही पक्षधरता की, असल में पक्षधरता का रंगमंच आप करते आए हैं। पॉलिटिकल एलिमेंट्स को आप लेते आए हैं। बहुत सारी इस तरह की वर्कशॉप आपने की हैं। यह कैसे पैदा हुआ? यह ग्रुप क्या हैं कौन लोग हैं? हमारे साथ शेयर कीजिए कि किस प्रकार से आपका ग्रुप काम करता है। कितने लोग हैं किस तरह से आप इन सब को लेकर चलते हैं?

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मंजुल भारद्वाज: संवाद व्यक्ति की जरूरत रही है, समाज की जरूरत रही है, देशों की जरूरत रही है। पहले हम सम्मान कला से करते थे लेकिन आज 1990 के बाद हमारा संवाद सीमित हो गया है। और वह संवाद है खरीदो और भेजो। डब्ल्यूटीओ नाम का एक संगठन जो दुनिया को लूटने पर आमादा है, उसने यह संस्कृति चलाई है, कि खरीदो और बेचो। खरीदो और बेचो के जो बाहर है वह कला है। क्योंकि कला को खरीदा और बेचा नहीं जा सकता।  कला मनुष्य का निर्माण करती है।

हमारा पहला प्रयोग 6 दिसंबर 1992 में हुआ। आपको मालूम है कि क्या हुआ मुंबई में।1993 जनवरी में मुंबई जला और हमारे कलाकारों ने बांद्रा नाम का एक जगह है, वहां बहरामपाड़ा है और वहीं पर बाल ठाकरे साहब का भी घर है। वहां पर जो मारकाट हुई उसमें हमारी टीम ने जाकर कर्फ्यू बाउंड एरिया में नाटक खेला, “दूर से किसी ने आवाज दी”

जब हमने नाटक शुरू किया तो लोग तलवारें लेकर आ गए थे। लेकिन जब नाटक खत्म हुआ था तब हमने बोला था “इंसान!” और उन्होंने बोला था “जिंदाबाद!” और यही जो आवाज़ है यह हमारा प्राण है। हम कोई दिखावा नहीं करते, नुमाइश नहीं करते। जब जनता का संवाद रखा जाएगा तो जनता की आवाज को कोई दबा नहीं सकता। यहां बहुत बड़े लेखक है, उनको नोबेल भी मिला है। वह बहुत कंफ्यूजिंग सी बात करते हैं। वह कहते हैं कि राजनीति का थिएटर की अलग समस्याएं हैं। मैं यह कहता हूं कि वह थिएटर ही नहीं है जिसमें राजनीति नहीं है।

रंगकर्म जिंदा तस्वीरें हैं! हम कोई फोटोग्राफ नहीं हैं जो दीवार पर टांग दिए जाएं। यह जो मूल संकल्पना है, रंगकर्म जिंदा होने की आवाज है! आज के  रूलिंग स्ट्रेटेजी है कि आप जनता को इतना कंफ्यूज कर लो कि वह सिरे ही खोजते रहे। सत्ता जो हैं वह हमेशा रंगकर्मियों से डरती है, और इसलिए डरती है क्योंकि रंगकर्मी विद्रोही होते है। वह अपने आप से विद्रोह करते हैं, उस विद्रोह को दबाने के लिए सत्ता उसको भोग-विलास या बहुत सारे संस्थान चलाती है। कौन सी ऐसी विधा हैं जो आपके व्यक्ति और व्यक्तित्व पर काम करती है?और वह सिर्फ और सिर्फ  रंगकर्म हैं!

दुष्यंत: मेरा प्रश्न यह था कि आप जो रंगकर्म कर रहे हैं उसमें वह ग्रुप कैसे काम करता है? और वह ग्रुप अपने आप में आर्थिक पक्ष को कैसे झेलता है और राजनीतिक और सामाजिक पक्ष को कैसे झेलता है?

मंजुल भारद्वाज: हमारे जो कलाकार हैं, या हम जो कार्य करते हैं वह मीडिया की सुर्खियों के परे होकर काम कर रहे हैं।  1993 में मजदूरों ने बुलाया था हमें नाटक करने के लिए तो उन्होंने कहा कि भाई हमारे पास तो पैसे नहीं हैं हम कैसे करेंगे। मैंने कहा कि आप क्या करते हो तो बोले कि हम दिहाड़ी काम करते हैं। सो मैंने कहा आप कितने लोग हैं? तो बोले कि हम 300 लोग हैं जो बस्ती में रहते हैं। तो हमने कहा 10-10 रुपए कंट्रीब्यूट कर लीजिए। और हमारे जो ग्रुप के साथी कलाकार हैं वह बांद्रा से मान खुर्द गए थे नाटक करने, 505 नंबर की बस थी, 5 रुपए का टिकट था आना और जाना। तो मैंने कहा 300 रुपए आप हमको दे दीजिए। और उसके बाद वह नाटक परफॉर्म हुआ, मजदूरों की बस्ती का संगठन बना और उन मजदूरों को यह विश्वास हुआ कि हम भी एकत्र होकर कोई प्रोग्राम कर सकते हैं। यह सवाल आता ही क्यों हैं कि हम आर्थिक रुप से सरवाइव कैसे करेंगे! क्या यह जनता मर गई हैं क्या? मुझे आज कोई बता दीजिए कलाकार जिसमें कला हो और भूख से मर गया हो।

हम लिख सकते हैं कि भूखे बचपन को बचाना हैं। लेकिन जब हम रात को खाना खाते हैं तो आधा खाना बाहर रख कर फेंक देते हैं। सवाल यह है, सवाल यह है कि गाना गाया जाता है और सोमरस लगाकर गाया जाता है। कलाकारों को केवल जनता को शुद्ध नहीं करना है। क्योंकि कला सतत शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। तो जो शुद्ध नहीं करता वो प्रोडक्ट है। क्या बाजार में बिकने वाला हर जिस्म कलाकार है क्या? और कलाकार प्रोडक्ट नहीं हो सकता। और कलाकार प्रोडक्टाइजेशन का हिस्सा नहीं है। हमारे बहुत सारे फिल्म में काम करने वाले कलाकार हैं, जब उनकी तूती बोलती है तो बहुत बढ़िया बाद में बोलते हैं हालत खराब। क्यों? क्योंकि उनके कला का मेहनताना तो वह ले लेते हैं लेकिन मिल्कियत नहीं ले पाते हैं। और हमारा अर्थ है कि जनता हमारी मिल्कियत है!

दुष्यंत (ऑडियंस से) : और भी कोई सवाल हैं तो आप प्लीज पूछ सकते हैं।

कॉमरेड दिलीप: मंजुल भाई, पहले जिंदगी जिंदगी होती थी। आजकल जिंदगी  मुखौटे हो गए हैं। थिएटर ऑफ़ रेलेवंस वह मुखौटे उतारकर असली जिंदगी, जो कला हैं, वह आ जाए यही काम हुआ है।

मंजुल भारद्वाज: जी बिल्कुल कॉमरेड! मैं एक बात कहना चाहता हूं कि जिस शेक्सपियर से शुरुआत की थी मैंने नाटक की, पिछले 2 साल पहले एक पेरिस की मैगजीन में इंटरव्यू लेने आई,  उन्होंने कहा “व्हाट डू यू थिंक अबाउट शेक्सपियर?”  एंड आई  सेड, “शेक्सपियर इज द च्युइंगम ऑफ लिटरेचर!”

यह उपनिशवाद जो है, यह हमें बाहर निकालना है। यह उन्होंने हंसते, बातें करते, मजाक में कह दिया होगा की “ऑल द वर्ल्ड इज़ स्टेज” हम थिएटर ऑफ़ रेलेवंस में यह दृष्टि करते हैं, जिंदगी नाटक नहीं हैं । अगर आप बाप हैं तो असली के हैं आप बच्चे हैं तो असली के हैं। तो यह भ्रांतियां निकाल दीजिए। नाटक वह है जो सोच समझ कर किया जाए और जिंदगी वह है जो अपने आप चलती रहे। यह दृष्टि जो है, हमें क्लियर करनी हैं, साफ करनी हैं।

यशपाल शर्मा: बहुत-बहुत बधाई हो आपको पहले तो, बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। और दुष्यंत के साथ भी मैं काफी रहा हूं तो यह जानकर आपके बारे में बहुत बढ़िया लगा। लेकिन आपकी एक बात से मैं थोड़ा सा सहमत नहीं  कि मैं यह मानता हूं कि थिएटर ही व्यक्तिगत विकास के लिए सबसे बेस्ट चीज हैं। कट्टरपंथता हर जगह आ गई है। सिर्फ और सिर्फ रंगमंच ही, इसका मतलब है कि गुलजार साहब जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं हैं उतना। या पैडमैन, आप थिएटर का एक नाटक दिखाते हैं, की लड़कियों को बचपन से शिक्षा दें, इस तरीके की पैड की या टॉयलेट एक प्रेम कथा जो फिल्म थी, एक टॉयलेट के बारे में जागृति देना, जो हम हजार लोगों के सामने कर सकते हैं। लेकिन एक फिल्म के जरिए करोड़ों लोगों के सामने कर सकते हैं तो उसमें क्या बुराई है? क्यों नहीं हम उन चीजों को स्वीकार करते हैं, कि हर विधा की, मैं आज तक थिएटर कर रहा हूं 1984 से 35 साल से अभी भी कर रहा हूं, 13 नाटक चल रहे हैं मेरे, लेकिन मेरा जो मकसद है, फिल्मों में आने का जो मकसद हैं, वह कुछ अलग है। मैं उस तरीके से सिर्फ पैसे की  सीढ़ी बनाकर नहीं जाना चाहता हूं।

हम क्यों ना सब कोई मिलकर सारे विधाएं, एम एफ हुसैन की पेंटिंग, क्या पेंटर के कला से व्यक्तित्व का विकास नहीं हो सकता किसी पेंटर का या किसी गीतकार का? कल जो पातर साहब आए थे, सुरजीत जी, वह भी तो अपने आप में एक व्यक्तित्व हैं। शायद थिएटर कोई करे ना करें बात अलग हैं, सुजीत सरकार हैं जो पीकू’ जैसे फिल्म बना रहे हैं आजकल और इतना थिएटर किया हैं उन्होंने पीयूष मिश्रा के साथ, तो मेरा कहने का मकसद सिर्फ यह हैं कि हम यह भ्रांति ना दें। किसी भी विधा को हम खराब ना कहें। चाहे पेंटिंग हो चाहे फिल्म हो चाहे कोई भी हो। हां फिल्म का अपना-अपना स्तर है। बहुत सारी फिल्म ऐसे भी हैं जिन पर हम फख्र कर सकते हैं, पूरे देश के लिए।

मंजुल भारद्वाज: थिएटर मतलब है कि “दी आरटे”, जब सिनेमा नहीं था तब थिएटर था। थिएटर में जब दृश्य आता है तो उसमें फिल्म शामिल है। मैं सिनेमा के खिलाफ नहीं हूं, सवाल यह है कि सिनेमा मुझे कह क्या रहा है? मैं बात दृष्टि की कर रहा हूं। मैं किसी भी विधा के खिलाफ नहीं हूं। मैं संस्थानों को बहुत प्यार करता हूं। लेकिन जब संस्थान केवल नाचने गाने के हुनर तक सीमित रहें, कलाकारों को भरमाने के लिए साजिश करें, ओलंपियाड जैसा भद्दा मजाक करें। हमको कला दृष्टि पर भेद नहीं है, तरीकों पर है। और हम एक दूसरे को कॉन्प्लीमेंट कर रहे हैं। हमें ध्यान यह रखना है कि दृष्टि नहीं भरमानी है। सवाल यह है कि हुसैन साहब के पेंटिंग की चर्चा हो कि विवाद की चर्चा हो। हम इसलिए यह बात कह रहे हैं क्योंकि कला विवाद सुलझाती है कला विवाद बढ़ाती नहीं है। और रूबरू होना उसका कोई रिप्लेस नहीं करता।

जैसे आज कहते हैं विकसित हो गए हम, अब आप यह कहेंगे शॉपिंग मॉल विकसित होने का मतलब, यह देखिए कि क्या शीशा पर्यावरण के लिए ठीक है? लेकिन आज भूमंडलीकरण बता रहा है कि यह आपका डेवलपमेंट है। आज टेक्नोलॉजी बेच रही है हमें और हमें भरमाया जा रहा है कि यह विज्ञान का युग है। विज्ञान और तकनीक के फर्क को समझना है और यह कलाकारों की जवाबदारी है कि यह फर्क को वह बताएं लोगों को। खरीदना और बेचना जिस देश की संस्कृति हो वह मनुष्य होने का चिह्न नहीं है। वह पदार्थीकरण है, वस्तुकरण है। यह अर्थहीन होने का दौर है और हम सब को इस संकल्प के साथ यहां से जाना है कि हमें अपने जीवन में अर्थहीन नहीं होना हैं।

संपर्क – 98203-91859

स्रोत – देस हरियाणा, अंक 17, मई-जून 2018, पेज. 40

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